पीयुष ग्रन्थि (दिव्य दृष्टि) Pineal gland

दष्टि या आंख

सभी प्राणियों में स्पष्ट रहती है जो प्रत्यक्ष है परन्तु इसका न मस्तिष्क (शिर/गुहा) में रहता है। इतना ही नहीं सभी प्रत्यक्ष अंगों के मूल (सूक्ष्म ग) मस्तिष्क में ही हैं। शरीरशास्त्री उन्हें जानते हैं, देखते हैं। सामान्यजन उन्हें न जानते हैं और न देख ही सकते हैं। असाधारण ज्ञान-विज्ञान वेत्ता को उन्हें न जानना ही चाहिये अन्यथा वह असामान्य नहीं है।

           द्वापर युग के सुप्रसिद्ध महाभारत के भयंकर रण क्षेत्र में मोहग्रस्त अर्जुन को भगवान कृष्ण ने दिव्य चक्षु देकर अपना विराट शरीर दिखाया था, क्योंकि अर्जुन स्थल दष्टि से वास्तविक तथ्य को न देखने के कारण भगवान की आज्ञा को नहीं मान रहा था। अन्ततः भगवान को स्पष्ट कहना पड़ाः

दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे रूपमैश्वरम्।

अर्थात् मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि दे रहा हूँ मेरा ईश्वरीय रूप देखो। (गीता अ. ११/८)

आयुर्वेद अथवा अन्यान्य स्थानों में विभिन्न नामों से इसका उल्लेख इस प्रकार है:

१- ध्यान चक्षु (चरक सूत्रस्थान १/१७ अथवा)

२- समाधि चक्षु (वही चक्रपाणि)

३- ज्ञान चक्षु ४- दिव्य दृष्टि (चक्रपाणि च. १८-२३ और गीता)

५- दिव्य चक्षु (गीता अ.११/८)

६- सूक्ष्म दृष्टि

७- तृतीय दृष्टि

तब सिव तीसर नयन उघारा।

चितवत काम भयउ जरि छारा।। (रामचरितमानस)

एक शब्द का एक ही अर्थ होता है परन्तु उसका प्रयोग कुछ भिन्न होता है। इसलिये प्रत्येक अवसर पर-स्थान पर शब्द शक्ति या उसकी उच्चारण शक्ति पर गम्भीर ध्यान देकर विचार करना चाहिये।

नाड़ी परीक्षा के लिये परीक्षक शुद्ध-बुद्ध-प्रबुद्ध रहेंगे तभी वाञ्छित सफलता मिलेगी। इसके लिये उनका देह और मन जितना ही स्वस्थ रहेगा सावधान रहेगा उतनी अधिक सफलता उन्हें मिलेगी। अर्ध रात्रि के बाद ब्राह्म मुहूर्त सर्वश्रेष्ठ है। विशेषत: रात्रि ३ बजे से सूर्योदय तक। इस काल में देह और मन (मस्तिष्क) अधिकतम पवित्र और सावधान रहता है। गीता (अनासक्ति योग) आदि के अनुसार यह संयम का जागरण काल है। सबसे आगे बढ़कर इस काल में दिव्यदृष्टि या पीनियल ग्रन्थि खुली रहती है। उपर्युक्त इसके पर्यायवाची नामों से पता चलेगा कि इस काल से बढ़कर अध्ययन काल अन्य नहीं। इसलिये प्रत्येक वैद्य, प्रत्येक व्यक्ति को इस समय चिन्तन मनन करना चाहिये और प्रात: स्नान ध्यान के पश्चात् रोगी सेवा आदि करनी चाहिये। इस तथ्य के पालन से बुद्धि प्रखर होती है।

ब्राह्म मुहुर्ते उत्तिष्ठेञ्जीर्णाजीर्णं निरूपयन्।

रक्षार्थमायुषः स्वस्थो………………….। (अष्टांग संग्रह सू. अ. ३)

युग-युग से पुराणों में शिवजी के तीसरे नेत्र का अद्भुत चमत्कारिक वर्णन संक्षेप में मिलता है। इसी नेत्र को दिव्य दृष्टि, सूक्ष्म दृष्टि, ज्ञान चक्षु एवं ध्यान चक्षु इत्यादि कहा गया है। इसका सर्वाधिक प्रचार रामायण की अद्भुली – “तब सिव तीसर नयन उघारा। चितवत काम भयउ जरि छारा।।” से हुआ और लोगों ने इसे तमाम कोणों और नुख्त-ए-नजर से देखा। श्रीमद्भागवत् गीता में भी भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि देकर अपना समग्र दर्शन या विश्वदर्शन कराया। इसका वैज्ञानिक और सफल प्रयोग आयुर्वेद के तथाकथित आदिकाल में तब हुआ जब इन्द्र के यहाँ से भारद्वाज ऋषि आयुर्वेद के मुख्य तीन हेतु, लिंग और औषधि को भली भांति पढ़कर आये, किन्तु इस लोक में अधिक शील और लोकोपयोगी बनाने के लिए इस दृष्टि का प्रयोग कर शब्द गुण, द्रव्य और समवाय नामक षट्पदार्थों का ज्ञान किया। इसके पूर्व वेदों के तथाकथित कर्ता ब्रह्मा ने भी आकाश से वेदों के शब्दों को इसी प्रकार देखकर जाना था। आज के शारीर शास्त्र में इसको पीनियल ग्रन्थि कहा जाता है।

                   तीन दशक पूर्व वैज्ञानिक इसके अद्भुत कार्य से प्रायः अनभिज्ञ थे और इस ग्रन्थि को बेकार समझकर इसको उपेक्षित किया गया पर धीरे-धीरे जब इस पर शोध हुए तो इस पर पड़ी रहस्य की परतें हटने लगीं और वैज्ञानिकों द्वारा इस ग्रन्थि को सारे शरीर का संचालक एवं अद्भुत शक्ति का स्रोत माना गया। वैज्ञानिकों ने इस ग्रन्थि से उत्पन्न रस मेलाटोनिन को रोग एवं वृद्धावस्था का प्रतिरोधक माना है। सबसे आगे बढ़कर पाश्चात्य दर्शन के जनक मनीषी मूर्द्धन्य फ्रेन्च दार्शनिक डेकाटें ने सत्रहवीं शताब्दी में इसे आत्मा का प्रश्रय माना है। २१/१०/९३ के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राणिकी प्रत्यानुशीलन केन्द्र द्वारा आयोजित पीनियल ग्रन्थि और उसके मॉलिक्यूलर सिग्नल विषयक कार्यशाला में भी विश्व के मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने इस सन्दर्भ में निम्नलिखित विचार व्यक्त किये: जर्मनी के वैज्ञानिक डॉ. डी. गुप्ता ने मेलाटोनिन की कार्यप्रणाली की तुलना रेडियो तरंगों से की जो संदेश भेजने एवं संदेश प्राप्त करने की दोहरी क्षमता रखती है। मेलाटोनिन की सूचनायें मुख्य नियन्त्रण कक्ष पीनियल में एकत्र होती हैं तथा वहां से नयी परिस्थिति के अनुरूप समझने और समायोजित होने के निर्देश जारी होते हैं। डॉ. गुप्ता ने कहा, मेलाटोनिन वह हारमोन भाषा है जिसके माध्यम से पीनियल ग्रन्थि शरीर के विभिन्न अंगों से संवाद करती है। जहाँ इटली के वैज्ञानिक डॉ. पीलिसोनी ने इसे कैन्सर के उपचार के लिए उपयोगी बताया है वहीं डा. पीयर दौली ने इसे वृद्धावस्था को अवरुद्ध करने में सक्षम माना है।) | युगों पूर्व भारतीय ऋषियों ने इसकी आकाश से शब्द ग्रहण करने की शक्ति से ऊपर इसे विश्व दर्शन आदि अगणित चमत्कारिक एवं अलौकिक शक्तियों का स्रोत माना था, जैसा गीता, रामायण आदि में स्पष्ट लिखा है। पर इसे योगियों एवं ऋषियों की अलौकिक शक्ति का ही परिणाम माना जाता है। युग सन्दर्भ में इसका चमत्कारिक उपयोग कैसे करें, यह स्पष्ट नहीं है।

जहाँ तक अनुमान है कि सर्वप्रथम भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भागवत् गीता के अध्याय ११वें के श्लोक आठ में अर्जुन से स्पष्ट कहा है कि :

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।

दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य में योगमैश्वरम् ।।

अर्थात् तुम मुझे अपनी इस आँख से नहीं देख सकते। तुम्हें दिव्य दृष्टि दे रहा हूँ, मेरे ऐश्वर्य योग को देखो। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कैसे दिव्य चक्षु दिया इसका ज्ञान अभी तक नहीं हो सका है परन्तु गीता के अध्याय छ: के १३, १४ श्लोक में दिव्य चक्षु के प्रयोग की यह विधि बतायी है:

समं कायशिरोग्रीवं धारयनचलं स्थिरः।

सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चवानवलोकयन्।।

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः। …

मनः संयम्य मचित्तो युक्तासीत्मत्परः॥

अर्थात् काय (शरीर नहीं) सिर एवं गर्दन को अचल कर दिशाओं की ओर न देखते हुए अपनी नासिका के अग्रभाग को अच्छी प्रकार देखते हुए-अच्छी तरह शान्त आत्मा भयरहित, ब्रह्मचारीव्रत में स्थित योगी, मन को भली भांति नियमित कर हमारे में (भगवान में) चित्त लगाकर हमें (भगवान कृष्ण में ) ध्यान लगाकर बैठे। मुझमें स्थित निर्वाण अर्थात् परमशान्ति (अशेष प्राप्तव्य शान्ति) को प्राप्त कर लेता है।

सूर्योदय के समय काशी में लेखक का अनुभव है कि चैलाजिनकुशोत्तर आसन (स्वच्छ पवित्र भूमि पर कुशासन, मृगचर्म या रेशमी आसन) पर बैठे दक्षिण दिशा की ओर मुखकर बैठने के पश्चात् नासिकाग्र पर दोनों दृष्टियों को स्थिर कर देखें। नासिकाग्र से शंकु के आकार का एक मनोरम प्रकाश निकलेगा जिसकी एक धारा नासावंश से सटी एवं दूसरी धारा उसके विपरीत ऊपरी दिशा पर होगी और तीसरी धारा भ्रूमध्य में खड़ी छड़ी के समान होगी जिसका निचला सिरा नासावंश से सटी धारा से और ऊपरी सिरा विपरीत सटा होगा। प्रकाश में मयूर चन्द्रिका के समान नीले चमकते हुए मनोरम अगणित कण दिखायी देंगे तत्क्षण आंख बन्द कर लें अन्यथा आंख निकल जाने के समान पीड़ा होगी। यह प्रकाश द्रष्टा को भाव विभोर कर देगा।

         दिव्य दृष्टि से देखने पर काम और कामना जलकर क्षार हो जाती है फिर कोई इच्छा शेष नहीं रहती है। भगवान कृष्ण के उपर्युक्त वाक्य के सन्दर्भ में आधुनिक विज्ञान के निम्नलिखित शोध को विशेष महत्व देना चाहिये|

१- चर्मचक्षु के स्वाभाविक रूप से काम न करने पर नासिकामूल (ग्लैबिला) पीनियल ग्रन्थि के बीच में अन्धकार छा जाता है और चर्मचक्षु से अदृश्य किसी तांछित वस्तु को देखने की क्षमता उसमें आ जाती है। जैसा कि स्पष्ट अर्जुन को चर्मचक्षु से अदृश्य भगवान का योग ऐश्वर्य अथवा विराट दर्शन हुआ था। 

आधुनिक वैज्ञानिकों के मत से यह भी स्पष्ट है कि अर्द्धरात्रि के बाद उपवृक्क उस का विसर्जन स्थिर रहता है जो पीनियल द्वारा नियन्त्रित होता है। यह रस स्टेटोइड के नाम से जाना जाता है। इस स्थिरता से मनुष्य शान्त और चिन्तनशील हो जाता है।

यह भी ज्ञातव्य है कि गीता के शब्दों में अर्द्धरात्रि के बाद संयमी जागता है और वह चिन्तन, मनन या ब्रह्मदर्शन करता है। ठीक २ बजे के बाद ब्राह्ममुहूर्त की गणना की जाती है, जिसमें श्रेष्ठतम अध्ययन एवं चिंतन-मनन होता है। प्राणियों के सोने के पश्चात् अर्द्धरात्रि में लोकशब्द आकाश में नहीं जाते हैं। परिणामतः आकाश में स्थित गन्दे शब्द नीचे बैठ जाते हैं। अतः अच्छे शब्द आसानी से जागृत संयमियों की दिव्य दृष्टि द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। इसी कारण ब्राह्म मुहूर्त में जागना श्रेष्ठतम माना गया है।

२- पौराणिक गाथाओं में शिव जी द्वारा अपने तीसरे नेत्र का प्रयोग कर काम को भस्म करने का प्रसंग हमको मिलता है। आधुनिक विज्ञान को भी पीनियल ग्रन्थि में अन्त:फल एवं वृषणों को नियन्त्रित करने की अद्भुत क्षमता मिली है। पीनियल ग्रन्थि अन्तःफल और वृषण से उत्पन्न रस (ऐस्टरोजिन एवं टेस्टोटिरीन) को निकलने से रोकता है। परिणामतः कामवासना की उत्तेजना शान्त होती है, जो तुलसीदास के उपर्युक्त वाक्य को युग सन्दर्भ में मुखर करता है।

३- यह भी स्पष्ट है कि विभिन्न कालों या ऋतुओं का प्रभाव मानसिकताओं, भावनाओं, चेतनाओं, उत्तेजनाओं एवं जीवन-मरण के भावों पर पड़ता है। ये भाव हमारी पीनियल ग्रन्थि एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्रों से प्रभावित होते हैं।

4- आधुनिक विज्ञान में यह भी स्पष्ट है कि पीनियल और उसके आसपास की क्षेत्र जो नाड़ियों द्वारा आपस में गुथा हुआ है उत्तेजना, चिंतन, जीवन-मरण को नियन्त्रित करता है पर इस पर आगे शोध होना अति आवश्यक है ताकि हमारे प्राचीन ग्रन्थों से प्राप्त संदेश युगसंदर्भ में भी प्रेरणा देता रहे।

         अन्ततः कुल मिलाकर हमारी यह धारणा है कि पौराणिक ग्रन्थों में दिव्य दृष्टि या सूक्ष्म दृष्टि का वर्णन मात्र कपोलकल्पित नहीं है। आज के आधुनिक विज्ञान ने भी अपने अनुसन्धान द्वारा इसको चरितार्थ किया है पर इस पर अभी और शोध की आवश्यकता है जिससे पीनियल ग्रन्थि की अद्भुत कार्य क्षमता से विश्व लाभ उठाये। ओर वेदों, आयुर्वेद, शास्त्रों, पुराणों और स्मृतियों में ऐसे अगणित तथ्य हैं। जिनसे युगसन्दर्भ में मानवीय चेतना, प्रेरणा और ऊर्जा में मंगलमय वृद्धि होगी।

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